प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश ऐसे ही नहीं कर रहे हैं। पहले चरण के मतदान के साथ ही दूसरे फेज की वोटिंग का संभावित ट्रेंड उन्हें डराने लगा है। इस फेज में भी बीजेपी को लगभग 22 सीटों पर खतरा महसूस हो रहा है। पहले फेज में भी उसकी लगभग इतनी ही सीटें कम होने की संभावना है।
दोनों चरणों में छत्तीसगढ़ की चार सीटों पर वोटिंग है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में यहां बीजेपी का जो हाल हुआ था, उसके इस बार दोहराए जाने की संभावना है। और यह ठीक ही है कि बीजेपी जानती है कि उसके लिए यहां कुछ भी नहीं है। पहले फेज में बसतर में वोटिंग है। यहां पिछले विधानसभा चुनाव में 8 में से 7 सीटें कांग्रेस को मिली थीं।
दूसरे फेज में जिन दो सीटों पर बीजेपी पिछले लोकसभा चुनाव में जीती थी, उसके मत प्रतिशत का अंतर काफी कम रहा था। महासमुंद में बीजेपी 0.11 और कांकेर में 3.46 प्रतिशत वोटों के अंतर से जीती थी। एक अन्य सीट- राजनंदगांव में पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की सात में से छह सीटों पर कांग्रेस विजयी रही थी। पिछले विधानसभा चुनाव के आंकड़े तो यही बताते हैं कि बीजेपी को यहां जीतने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।
यही हाल जम्मू-कश्मीर में उधमपुर का है। यहां से केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह बीजेपी उम्मीदवार हैं। पिछली बार वह सिर्फ 5.85 फीसदी मतों के अंतर से जीते थे। कई वायदे निभाने की वजह से इस बार उनके खिलाफ जिस तरह का माहौल है, यहां उनके पसीन छूटे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में पहले फेज के चुनाव वाली नोएडा, बिजनौर, मेरठ, बागपत, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कैराना आदि कई सीटें तो बीजेपी खोएगी ही, दूसर फेज में भी उसके लिए राह आसान नहीं है। कांग्रेस के साथ-साथ एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन इस फेज में भी बीजेपी को परेशान किये रखेगा। पिछले चुनाव के मत-प्रतिशत के कुछ उदाहरणों से आंखें खुल सकती हैं।
अब जैसे, नगीना में पिछली बार बीजेपी को सिर्फ 39 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि एसपी-बीएसपी का संयुक्त वोट शेयर 55 फीसदी था। इसी तरह, फतहेपुर सीकरी में बीजेपी को 44.06 फीसदी ही वोट मिल थे जबकि एसपी-बीएसपी-आरएलडी तब अलग-अलग न लड़ते, तो 50.7 प्रतिशत मत पाते। अमरोहा में बीजेपी को 48.26 प्रतिशत मत मिले थे जबकि एसपी- बीएसपी ने अलग-अलग लड़ा था। अगर मिलकर लड़ते, तो 48.69 फीसदी मत हासिल कर लेते।
मथुरा में पिछले मत प्रतिशत 53.29 फीसदी, के आधार पर बीजेपी प्रत्याशी हेमा मालिनी सुकून में रहने का भ्रम पाल सकती हैं। तब एसपी-बीएसपी-आरएलडी का संयुक्त मत प्रतिशत 42.2 प्रतिशत था। लकेिन इस बार हेमा को इलाके के लिए ज्यादा कुछ नहीं करने का उलाहना वोटरों से सुनना पड़ रहा है और यह उनके लिए खतरे की घंटी है।
अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित दो सीटों- आगरा और हाथरस पर बीजेपी ने इस दफा अपने उम्मीदवार बदल दिए हैं, तब भी जबकि इन दोनों पर पिछली बार जीतने वाले बीजेपी उम्मीदवारों की जीत के अंतर तीन लाख से भी अधिक था। इससे होने वाले असंतोष का खामियाजा बीजेपी को दूसरे फेज में झेलना पड़ सकता है।
बिहार में भी राह कांटों भरी है। बिहार में कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन से तो बीजेपी मुश्किल में है ही, उसे अंदरूनी कलह से भी जूझना पड़ रहा है। पूर्णिया से उदय सिंह कांग्रेस प्रत्याशी हैं। पहले वह बीजेपी में थे, अब कांग्रेस में हैं। इस क्षेत्र में उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता मजबूत है। 2004 के चुनावों में जब बीजेपी-जेडीयू का बिहार में सफाया हो गया था, तब भी उदय सिंह जीतने में सफल हुए थे। उन्होंने 2004 और 2009 के चुनाव भी जीत हासिल किया था।
भागलपुर सीट पर 2014 में महज 9 हजार वोटों से बीजेपी प्रत्याशी पूर्व केंद्रीय मंत्री शाहनवाज हुसैन हारे थे । इस बार,बीजेपी ने गठबंधन में यह सीट जेडीयू को दे दी। जेडीयू का अपना ही आकलन इस सीट पर जीत को लकर संदेहास्पद है। यही हाल पास की बांका सीट का है। यहां भी दिवंगत केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह पिछला चुनाव महज 10 हजार वोट से हारी थीं। मगर बीजेपी ने यह सीट भी जेडीयू को दे दी है। यहां भी बीजेपी का एक बड़ा खेमा इस फैसले से असंतुष्ट है।
किशनगंज कांग्रेस की मजबूत सीट मानी जाती है। पिछले चुनाव में भी जेडीयू उम्मीदवार अख्तरुल इमान को स्थिति मालूम थी, इसलिए उन्होंने नामांकन के बाद ही कांग्रेस के समर्थन में अपनी उम्मीदवारी छोड़ दी। बगल की कटिहार सीट भी बीजेपी के लिए चुनौती है। कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में तारिक अनवर के मैदान में होने से बीजेपी की मुश्किलें बढ़ी हुई हैं।